मीर तक़ी मीर
उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा! इस बीमारि-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया
अहद-ए-जवानी रो-रो काटा; पीरी में ली आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया
नाहकू हम मजबूरों पर यह तोहमत है मुख्तारी की
चाहते हैं सो आप करे हैं हमको अबस बदनाम किया
याँ के सपैद-ओ-सियह में हमको दख़्ल जो है सो इतना है
रात को रो रो सुबह किया या दिन को जूँ तूँ शाम किया
मीर के दीनो-मज़हब को अब पूछो क्या हो उनने तो
कृश्का खैंचा; दहरँ में बैठा, कब का तर्क-इस्लाम किया।
जिस सर को गरूर आज है यों ताजवरी का
कल उत्त प’ यहीं शोर है फ़िर नौहागर्री का
आफ़ाक की मंज़िल से गया कौन सलामत
असबाब लुटा राह में याँ हर सफ़री का
जिंदाँ में भी शोरिश न गई अपने जुनूँ की
अब संग मदावा हैं! इस आशुफ्तासरी का
ले ताँच भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक्न की इस कारयह-ए- शीशागरी का।
पत्ता-पत्ता बूटा- बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
चारागरी बीमारि-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्त नहीं
वरना दिलवर नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है
मेहर-ओ-वफा-ओ-लुत्फ-ओ-इनायत’ एक से वाकिफ इनमें नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-किनाया, रम्ज़ -ओ- इशारा जाने है
क्या क्या फ़ितनें सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल, बेताब-ओ-तब को इश्क का मारा जाने है।
आशिकृ-सI तो सादा कोर्ई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क में उसके अपने वारा जाने है
जिक-जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे स्राथ के बीमार मर गए
यूँ कानो -कान गुल ने न जाना चमन में आह
सर को पटक के हम पसे -दीवार॒॑ मर गए
सद कारवां वफ़ा है कोई पूछता नहीं
गोया मता-ए-दिल के खरीदार. मर गए
मजनूं न दश्त में हैं न फरहाद कोह में
था जिन से लुत्फे ज़िन्दगी वे यार मर गए
घबरा न ‘मीर” इश्क़ में इस सलह जीस्त ‘ पर
जब बस चला न कुछ तो मेरे यार मर गए
फ़क्रीयना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले
शफ़ा अपनी तक़दीर ही में न थी
कि मक़्दूर भर तो दवा कर चले
वो क्या चीज़ है आह जिसके लिए
हर इक चीज़ से दिल उठाकर चले
कोई ना-उमीदानां करते निगाह
तो तुम हमसे मुँह भी छुपाकर चले
दिखाई दिये यूँ कि बेखुद किया
हमें आपसे भी जुदा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हमसे ‘मीर”
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले
मोहम्मद रफ़ी ‘सौदा’
गुल फेंके हैं औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
ए खानाबरअन्दाज़-ए- चमन कुछ तो इधर भी
क्या ज़िद है मिरे साथ खुदा जानिए वर्ना
काफी है तसल्ली को मिरे एक नज़र भी
किस हस्ति-ए-मौहूम’ प’ नाज़ोँ है तू ऐ यार
कुछ अपने शब-ओ-रोज़ की है तुझको ख़बर भी
तन्हा तिरे मातम में नहीं शाम-ए-सियहपोश
रहता है सदा चाक गरेबान-ए-सहर भी।
बदला तिरे सितम का कोई तुझसे क्या करें?
अपना ही तू फ़रेफ्ता’ होवे खुदा करे
फ़िक्र-ए-मआश’, इश्क़-ए-बुतां , याद-ए-रफ्तगाँ
इस जिंदगी में अब कोई क्या-क्या किया करे
गर हो शराब -ओ- ख़लवत-ए-महबूब-ए- ख़ूबरू
ज़ाहिद! तुझे कसम है, जो तू हो तो क्या करे
तन्हा न रोज़ -ए-हिज़ ही ‘ सौदा ‘ पे’ है सितम
परवाना-ता विशाल में हर शब जला करे
ख्वाजा मीर ‘दर्द‘
तोहमतें चंद अपने जिम्मे धर चले
किस लिए आए थे हम क्या कर चले
ज़िन्दगी है या कोई तूफान है?
हम तो इस जीने के हाथों मर चले
शम्ज की मानिंद हम इस बज़्म में
चश्म-ए-त्त आए थे, दामन-तर चले
साक़िया याँ लग रहा है चल-चलाओ
जब तलक बस चल सके सागर चले
दर्द!! कुछ मालूम है ये लोग सब
किस तरफ से आए थे, किघर चले?
ग़ालिब
कभी नेकी भी उसके जी में ग गर आ जाए है मुझसे
जफ़ाएं करके अपनी याद शर्मा जाए है मुझसे
खुदाया, जज़्ब-ए- दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खेंचता हूँ उतना खिंचता जाये है मुझसे
उधर वो बदगुमानी है, इधर यह नातवानी है
न पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझसे
संभलने दे मुझे, ऐ नाउस्मीदी, क्या क्रयायत है
कि दामाने-खयाले-यार॑, छूटा जाये है मुझसे
हुए हैं पाँव ही पहले नबर्दे-इश्क में ज़ख्मी
न थाया जाए है मुझसे, न ठहरा जाए है मुझसे
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफर, ‘गालिब’
वो काफ़िर जो खुदा को भी न सौंपा जाए है मुझसे
बाज़ीच-ए-अत्फाल’ है दुनिया, मिरे आगे
होता है शबों रोज़ तमाशा, गिरे आगे
इक खेल है औरंगे-सुलेमां, मिरे नज़दीक
इक बात है, ऐजाज़े – मसीह, मिरे आगे
होता है निहI गर्द में सहरा, मिरे होते
घिसता है जबी ख़ाक पे दरिया गिरे आगे
मत पूछ, कि क्या हाल है मेरा, तिरे प्रीछे
तू देख, कि क्या रंग है तेरा, मिरे आगे
इमां मुझे रोके है, तो खेंचे है मुझे कुफ्र
काबा मिरे पीछे है, कलीसा मिरे आगे
खुश होते हैं पर वस्ल में यूं मर नहीं जाते
आई शबे-हिजराँ की तमन्ना मिरे आगे
गो हाथ को जुम्बिश नहीं, आँखों में तो दम है
रखने दो अभी सागर – ओ – मीना गिरे आगे
हम पेश-ओ-हम मशरब-ओ-हम राज़ है मेरा।
‘ग़ालिब’ को बुर क्यों, कहो अच्छा, मिरे आगे
दिल ही तो है, न संगो-ख़िश्त’ दर्द से भर न आए क्यों
रोयेंगे हम हजार बार, कोई हमें सताए क्यों
दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, कोई हमें उठाए क्यों
जब वो जमाले- दिल- फरोज़ सूरते-मेहरे-नीमरोज़’
आप ही हों नज़ारा सोज़, पर्दे में मुँड छिपाए क्यों
क़ैद-हयातो- बन्दे -गम’, असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले, आदमी गम से नजात पाए क्यों
वां वो गुस्रेइज्जों-नाज’ यां यह हिजाबे-पात-वज्अ
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलाए क्यों
हां वो नहीं खुदा परस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीनो-दिल अज़ीज़, उत्तकी गली में जाए क्यों
गालिवे”- खस्ता के बिग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइये जार जार॑ क्या, कीजिए हाय हाय क्यों
तब कहा-कुछ लाल-ओ-गुल में नुमायों हो गई
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी, कि पिन्हा हो गई
इन परीज़ादों’ से लेंगे खुल्द में हम इन्तिक्राम
कुदरते-हक़ से, यही हूरें अगर वाँ हो गई
नींद उसकी है, दिमाग उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी जुल्फ़ें, जियको बाजू पर, परीशाँ हो गई
में चमन में कया गया, गोया दबित्ताँ’ खुल गया
बुलबुलें हुन कर मिरे नाले, ग़ज़लख़वाँ हो गई
वो निगाहें क्यों हुई जाती हैं. यारव दिल के पार
जो मिरि कोताहि-ए-क्लिस्मत से मिशर्गों हो गई
वाँ गया भी मैं; तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दुआएँ, सर्फ़्दर्बोँ हो गईं
रंज से खूगर हुआ इंसा, तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गईं
यूँ छी गर रोता रहा ग़ालिब, तो ऐ अहले-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीरएोँ हो गई
रोने से और इश्क़ में बेबाक’ हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
रुसवा -ए-दहर गो हुए, आवारगी से तुम
बारे तबीअतों के तो चालाक हो गए
कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल’ को, बे असर
परदे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए
पूछे है क्या वुजूद-ओ-अदम अहले-शीक का
आप अपनी आग से खत-ओ-खाशाक हो गए
करने गए थे उससे, तगाफुल का हम गिला
की एक ही नियाह कि बस खाक हो गए
इस रंग से उठाई कल उसने ‘ असद’ की लाश
दुश्मन भी जिसको देख के ग्मनाका हो गए
यही है आजुमाना, तो सताना किसको कहते हैं
उदू के हो लिए जब तुम, तो मेता इंतिहान क्यों हो
निकाला चाहता है काम क्या तानों से तू, “गालिब”
तेरे बेमेहर कहने से, वो तुझ पर मेहरबाँ क्यों हो
इब्राहिम मोहम्मद ज़ौक़
बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या है
लाई हयात, आये, कज़ा ले चली, चले
अपनी खुशी न आये न अपनी खुशी चले
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
मरके भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे
आग दोज़ख़ की भी हो जाएगी पानी-पानी
जब थे ऑसी ‘अके-शरम” से तर जाएँगे
हम नहीं वो जो करें खून का दावा तुम पर
बल्कि पूछेगा खुदा भी तो मुकर जाएँगे
रूखे रोशन से नकाब अपने उलट देखो तुम
महरो-माह-नज़रों से यारों की उतर जाएँगे
जाँक जो मदरसे के हैं बियड़े हुए मुल्ला
उनको मैखाने में ले आओ, सँवर जाएँगे
मोमिन खान मोमिन
नावक-अदाज जिधर दीद:-ए-जानI होगे
नीम विस्मिल कई होंगे कई बे-जों होंगे
ताब-ए-नज़्जारा नहीं, आइना क्या देखने दूँ
और बन जाएँगे तसवीर जो हैरान होंगे
तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख़ाब-ए-आदम में शब-ए- हिज़रा होंगे
एक हम है कि हुए ऐसे प्शेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमां होगे
उम्र तो सारी कटी इश्क-ए-बुत्तां में मोमिन
आखिरी वक़्त में कया खाक मुसलमां होंगे?
बहादुर शाह ज़फ़र
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का करार हूँ।
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूँ॥
मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया।
जो चमन खिज़ा से उजड़ गया मैं उत्ती की फसले-बहार हूँ॥
पढ़े फ़ातेहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाए क्यों।
कोई आके शम्मअ जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ॥
मैं नहीं हूँ नग्मा-ए-जाफ़िज़ा, मुझे सुन के कोई करेगा क्या।
मैं बड़े बियोग की हूँ सदा, में बड़े दुखों की पुकार हूँ ॥
लगता नहीं है दिल मेरा, उजड़े दियारँ में।
किसकी बनी है आलमे-नापायदार में॥
कह दो इन हसरतों से, कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिले-दाग़दारँ में॥
उम्ने-दराज़ माँगकर, लाए थे चार दिन।
दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तिज़ार में॥
कितना है बदनसीब ‘ज़फ़र” दफ़न के लिए।
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूए- यार में॥
दाग देहलवी
उज्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाकात, बताते भी नहीं
खूब पर्दा है कि चिलमन’ से लगे बैठे हैं
साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
हो चुके कृत्अ ताल्लुक तो जफ़ाएँ’ क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं होता वो सताते भी नहीं
जीस्त से तंग हो ऐ ‘दाग’ तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं, जान से जाते भी नहीं।
अमीर मीनाई
नावक-ए-नाज़’ ते मुश्किल है बचाना दिल का
दर्द उठ-उठ के बताता है ठिकाना दिल का
हाए! वो पहली मुलाकात में मेरा रुकना
और उसका वो लगावट ते बढ़ाना दिल का
जी लगे आपका ऐसा कि कभी जी ने भरे
दिल लगाकर जो सुनें आप फ़साना दिल का
तीर पर तीर लगाकर वो कहा करते हैं
क्यूँ जी, तुम खेल समझे थे लगाना दिल का?
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